विश्व की प्राचीनतम संस्कृतियों में से एक भारतीय संस्कृति अपनी विविधता से भरी परंपराओं, भाषा, भोजन, वस्त्रं, शिल्प, नृत्य के लिये विश्व विख्यात है। भौगोलिक स्थितियों के अनुसार बदलता पहनावा, भोजन, रहन सहन यहाँ विभिन्नता का अनुभव तो कराता है किंतु आतिथ्य सरकार, आत्मीयता, देवी देवताओं के प्रति आस्था, धर्मानुसार आचरण, एक दूसरे की आस्था और परंपराओं के प्रति सम्मान, दूसरों पर अपनी आस्था थोपने की बजाये उनकी आस्था का सम्मान हमारी इस विभिन्नता की विशेषता है, और यह विशेषता ही हमारी एकता है। क्योंकि संस्कृति प्राचीन है, इतिहास भी पुरातन है, और उस इतिहास ने सबक भी दिये हैं। वेदों, उपनिषदों, पुराणों, विभिन्न दर्शन, मत, पंथ होने के बाद भी कुछ ऐसा है जो हमें जोड़ता है, जो हमें बांधता है, जो हमें अलग होने से रोक देता है। भारत के परिदृश्य में यह देखें तो इसमें हमारे उपासना स्थल, हमारे आराध्य और हमारे ग्रंथ इस एकता में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। गुजरात का व्यक्ति असमी भाषा नहीं जानता,लेकिन उसके मन में वहां स्थित कामाख्या देवी के लिये आस्था है, ऐसे ही मणिपुर के निवासी श्रीकृष्ण की जन्मस्थली मथुरा और द्वारका के लिये आस्था रखता है। केरल का व्यक्ति कश्मीर के अमरनाथ के दर्शन करना चाहता है तो कश्मीर का व्यक्ति जीवन में एक बार तमिलनाडु के रामेश्वरम को देखना चाहता है। और यह आस्था यह श्रद्धा देश के एक भाग के व्यक्ति को दूसरे भाग से जोड़ती है, और भाषा, पहनावा, भोजन इसमें कोई बाधा नहीं डालता। हमारे ग्रंथों में लिखे गये श्लोक हमारे मानस पटल पर गहरा प्रभाव डालते हैं। आप कश्मीर के व्यक्ति से पूछिये कि उसकी संस्कृति में नारी की क्या स्थिति है, वह श्लोक सुनायेगा 'यत्र नार्यस्तु पूज्यंते, रमंते तत्र देवताः' यही श्लोक केरल का व्यक्ति सुनायेगा और देश के अन्य क्षेत्रों के लोग भी इसी श्लोक को अपनी संस्कृति का हिस्सा बतायेंगे। यह संस्कृति हमारे ग्रंथों में डॉक्यूमेंटेड हुई है, जिसे नालंदा, तक्षशिला जैसे विश्वविद्यालयों और कश्मीर और काशी जैसे विद्वत नगरों में शिक्षा का हिस्सा बनाया गया था। अपने वैभव और विद्वता के कारण विख्यात हुए भारत की ख्याति जब विश्व के अन्य क्षेत्रों तक पहुंची तो कुछ लोग लुटेरों की तरह और कुछ व्यापारियों की तरह भारत में आये, लुटेरों का प्रतिकार हुआ, एक लंबे समय तक संघर्ष भी हुआ लेकिन निरंतर संघर्षों और अन्य कारणों से भारत कमजोर भी हुआ, जिसका लाभ उठा कर विदेशियों ने भारत को और अधिक लूटा। अधिकांश विदेशियों का लक्ष्य भारत के वैभव और संपन्नता को लूट कर अपना घर भरना था लेकिन कुछ विदेशियों ने यहां की बौद्धिकता को समझा, उन्होंने विश्लेषण किया और जाना कि भारत निरंतर संघर्ष इसलिये कर रहा है क्योंकि यह अपनी संस्कृति को छोड़ने के लिये तैयार नहीं है, इनके मन में 'जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरियसी' का जो भाव है वो इन्हें संघर्ष के लिये प्रेरित करता है, और यह विचार यहां के गुरुकुलों से, शिक्षा पद्धतियों से, परंपरा से, अपने पूर्वज राम और कृष्ण की कथाओं से हर अगली पीढ़ी तक जा रहा है। पाश्चात्य बुद्धिजीवियों ने भी जब भारतीय ग्रंथों का अध्ययन किया तो वह आश्चर्यचकित थे, कि आखिर भारत जो इतना अधिक विद्व है, जो ब्रह्मांड से लेकर पृथ्वी के गूढ़ रहस्यों पर शोध पत्रों के रूप में अनेक ग्रंथ लिख चुका है, जो ग्रह नक्षत्रों की चाल की गणना कर सकता है, जो गणितीय सूत्रों की रचना कर सकता है, जो शल्य चिकित्सा के अद्वितीय उदाहरण प्रस्तुत कर सकता है उसके पीछे का कारण क्या है? जब उन्होंने भारत और भारतीयता को समझने का प्रयास किया तो फिर उन्हें पता चला कि उनकी संस्कृति इसका मूल कारण है और इस संस्कृति के नींव में है संस्कृत भाषा, जिसे वह देवभाषा भी कहते हैं। उनके ग्रंथ इस भाषा में हैं, उनकी शास्त्रार्थ की परंपरा ने उनकी तर्क शक्ति को तेज किया है। पाश्चात्य वैज्ञानिकों में से अनेक ने इसे स्वीकार भी किया है। Shrodinger's Cat प्रयोग के लिये प्रसिद्ध नोबेल पुरस्कार विजेता एवं ऑस्ट्रियन फिजिसिस्ट इर्विन श्रोडिंगर कहते हैं "Most of my ideas and theories are heaviliy influenced by Vedanta" Uncertainitity Principle के लिये विख्यात नोबेल पुरस्कार विजेता वर्नर हिज़नबर्ग कहते हैं "Quantum theory will not look rediculous to people who have read Vedanta" परमाणु बम के आविष्कारक रॉबर्ट ओपनहीमर कहते हैं "Access to the Vedas is the greatest privilege this century may claim over all previous centuries" एटॉमिक स्ट्रक्चर एवं क्वांटम थ्योरी में अपना योगदान देने वाले नोबेल पुरस्कार विजेता नील बोहर कहते हैं "I go into the Upanishads to ask questions" प्रसिद्ध कॉर्ल सेगन बोलते हैं "The most elegant and sublime of these is a representation of the creation of the Universe at the beginning of each cosmic cycle, a motif known as the cosmic dance of Lord Shiva" परोक्त पाश्चात्य बुद्धिजीवियों के विचार दर्शाते हैं कि भारतीय दर्शन और संस्कृति ने उन्हें कितना प्रभावित किया था। जिन वेद वेदांत उपनिषद दर्शनों की इन बुद्धिजीवियों ने बातें की वह सब भारतीय संस्कृति के मूल ग्रंथ हैं, जो संस्कृत भाषा में लिखे गये। जब इस संस्कृत भाषा को हम विश्लेषण करते हैं तो पाते हैं कि विश्व इस भाषा को आज भी सर्वोत्तम बताता है, जिसमें अपवाद नहीं के बराबर हैं, और जो कंप्यूटर के लिये आज भी सर्वोत्तम भाषा मानी जाती है। ऐसी संस्कृति और उसके ज्ञान को डॉक्यूमेंटेड करने वाली संस्कृत भाषा के विनाश के लिये विदेशी आक्रमणकारियों ने अनेक प्रयास किये, जिसमें मुस्लिम आक्रांताओं का हमला शिक्षार्थियों के कत्लेआम, पुस्तक जलाने, विश्वविद्यालयों को तोड़ने, शिक्षकों की हत्याओं के साथ आरंभ हुआ, जिसका व्यापक प्रभाव तो पड़ा लेकिन क्योंकि शिक्षा केवल विश्वविद्यालयों तक सीमित नहीं थी वरन असंख्य गुरुकुल भी जो वनों में स्थित थे वह भी शिक्षा के केंद्र थे, इसलिये संस्कृति और संस्कृत के प्रवाह की गति कम तो हुई किंतु वह प्रवाह फिर भी जारी रहा। संस्कृत पुस्तकों के स्थान पर श्लोकों के द्वारा स्मरण करके एक पीढ़ी से दूसरी पीढी में स्थानांतरित हुई। ब्रिटिश मैकाले ने इस बात को समझा और उसने सबसे पहले संस्कृति को पीढी दर पीढी पहुंचाने वाली व्यवस्था को समाप्त करने की योजना बनाई जिसमें उसका लक्ष्य शिक्षा व्यवस्था और भारतीयों में संस्कृति के प्रति हीन भावना को पैदा करना था। स्वतंत्रता के बाद अपेक्षा थी कि भारत अपनी संस्कृति और उसको व्यापक आधार प्रदान करने वाली संस्कृत को लेकर कुछ करेगा, किंतु अंग्रेजी भाव और भावना के साथ पले बढ़े राजनैतिक लोगों ने जब नीतियां बनायीं तो उसमें दोनो के लिये कुछ नहीं किया गया। गंगा जमुनी तहजीब का हवाला देकर गंगा किनारे पली बढ़ी संस्कृति और संस्कृत दोनों को उपेक्षित किया गया। धीरे धीरे संस्कृत और संस्कृति को भारतीय नगरों में हीन भाव से देखा जाने लगा। स्थिति ये थी कि अंग्रेजी ना बोलने पर विद्यालयों में आर्थिक दंड लगाये जाने लगे। देवभाषा संस्कृत का लोप होना आरंभ हुआ और उसकी पुत्री हिंदी के शब्द तेज गति से भारतीय बोल चाल से गायब होने लगे। उर्दू और अंग्रेजी के शब्दों ने हिंदी और संस्कृत के शब्दों का अपहरण कर उन्हें विलुप्त कर दिया। इसमें मात्र सरकार का ही नहीं बल्कि फिल्म, साहित्य, इतिहास और कला जगत सभी का दोष था, किंतु किसी ने भी उस भारतीय प्राचीन भाषा और संस्कृति के लिये कुछ नहीं किया। कार्यक्रमों में फूहड़ नृत्य, बेहूदा प्रदर्शनों को सांस्कृतिक कार्यक्रमों का नाम तक दिया जाने लगा, जिससे समाज को लगा कि यही सांस्कृतिक कार्यक्रम है और यही संस्कृति है। 2014 में जब भारत में सत्ता परिवर्तन हुआ तो वह केवल केंद्रीय सत्ता का परिवर्तन नहीं था, ये मैकाले द्वारा अपनी संस्कृति के प्रति हीन भाव से भरे लोगों को सत्ता से हटाने का भी क्षण था। जैसी अपेक्षा थी वैसे ही 2014 के बाद सरकार ने संस्कृति और संस्कृत के पुनरोत्थान के प्रति अपनी गंभीरता दर्शायी। काशी विश्वनाथ, उज्जैन महाकाल, केदारनाथ सहित अनेक मंदिरों, गुरुद्वारों को अपना वैभव पुनः प्राप्त होना आरंभ हुआ, और इतना ही नहीं, इससे परे भारत के विभिन्न केंद्र चाहे संसद भवन हो, भारत मंडपम जैसा सभागार हो, संग्रहालय हों, इन स्थानों पर भी भारतीय संस्कृति की छाप दर्शाना आरंभ हुआ। विदेशी मेहमानों के सम्मुख उसी भारतीय संस्कृति का पुनः परिचय हुआ जिसके गुण पाश्चात्य बुद्धिजीवी और वैज्ञानिक कर चुके थे। नालंदा विश्वविद्यालय का पुनः प्रारंभ होना एक महान घटना है जो दर्शाती है कि भारत अपने प्राचीन सांस्कृतिक गौरव को पुनः प्राप्त करने की दिशा में आगे बढ़ रहा है। इसी कड़ी में उत्तर प्रदेश की राज्य सरकार द्वारा भी विभिन्न कदम उठाये गये हैं। संस्कृति के विकास के लिये आवश्यक है कि प्राचीन भाषा संस्कृत और उसकी लोकप्रियता, उपयोगिता और प्रसार पर ध्यान केंद्रित किया जाये। इसी संस्कृत भाषा के लिये उत्तर प्रदेश सरकार ने 24 वर्ष बाद संस्कृत विद्यालयों और महाविद्यालयों में शिक्षा ले रहे विद्यार्थियों की छात्रवृत्ति में वृद्धि की। जिस भारत में लाखों गुरुकुल संस्कृति और संस्कृति के प्रचार प्रसार के लिये कार्य करते थे, आज उनकी संख्या अत्यंत कम हुई है, और उन्हें भी प्रोत्साहन नहीं दिया जाता था, किंतु आज उत्तर प्रदेश में कुल 517 संस्कृत विद्यालय हैं, जिनके छात्रों को यूपी सरकार द्वारा दी जाने वाली छात्रवृत्ति का लाभ मिलेगा। देश के वेद, पुराण, उपनिषद सहित असंख्य ग्रंथ संस्कृत भाषा में हैं, यह छात्रवृत्ति विद्यार्थियों को संस्कृत पढ़ने के साथ ही इन ग्रंथों के अध्ययन को भी प्रोत्साहित करेगी। एक देश जहाँ हज पर सब्सिडी, और हज हाउस के निर्माण सामान्य हो गये थे किंतु संस्कृत के विषय पर बात करने पर चुप्पी साध ली जाती थी, आज उस देश में संस्कृत और संस्कृति के लिये किये जा रहे प्रयास अत्यंत सुखद हैं। केंद्र सरकार द्वारा संस्कृति के केंद्रों जैसे की मंदिर, विश्वविद्यालयों के पुनरोद्धार से आरंभ हुई सांस्कृतिक क्रांति राज्य सरकार द्वारा संस्कृत भाषा को दिये जा रहे प्रोत्साहन से और तेज होगी। मंदिरों और विश्वविद्यालय सामान्य जनता को संस्कृति से परिचित कराते हुए उसे अपने जीवन में उतारने को प्रोत्साहित करेंगे तो संस्कृत को दिया गया प्रोत्साहन आने वाले समय में भारत को मैकाले के पंजों से बाहर निकाल कर पुनः अपनी गौरवशाली परंपराओं में ढालेगा।